निमंत्रण
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: ०३-०८-१३)
मैंने जीवन भर संघर्ष किया,
रोज़ नई यातना को जिया,
फिर भी ज़िन्दगी से हार नहीं मानी,
लड़ते-लड़ते मर जाने की ठानी |
तभी से बस यूँही, लड़ता रहा जीता रहा
रोज़ ज़िन्दगी का ज़हर पीता रहा |
लड़ाई आज भी जारी है,
अंधकार अभी भी तारी है |
पर सुबह की किरणों को तो आना है,
निराशा, बेबसी और दुःख को तो जाना है |
ए, संसार भर के दुखी प्राणियों,
मेरे पास आओ और
मेरे हाथ पकड़ो |
हमसब को अब एकसाथ रौशनी को पाना है,
अभाव और सिस्कियों को मिटा कर
हमे नाचना है, हँसना है, गुनगुनाना है |
क्योंकि अब हमारी रात ख़त्म हो रही है,
उम्मीद जाग रही है और सुबह हो रही है |
चोखा बिज़नस
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: १९-०७-१३)
आज सुबह पोपट जी ने द्वार खटखटाया,
हमे कविता लिखते से उठाया,
बोले ज़ाकिर भाई क्यों शब्दों को जोड़ रहे हो
बेकार की कविताएँ लिख कर
आँखें फोड़ रहे हो |
ये कविताएँ तुम्हें,
कुछ नहीं दे पायेंगी |
हाँ, कुछ वर्षों में तुम्हें,
अँधा जरुर कर जायेंगी |
इन्हें गोली मारो-
चलो, तुम्हें एक चोखा बिज़नस करवाएं,
सिर से पैर तक तुम्हें पैसे से नहलाएं |
सरकार ने स्कूलों में ‘मिड-डे मील’
की योजना चलाई है
स्कुल जाने वाले बच्चों के लिये,
हमे खाने की करनी सप्लाई है |
उनको रोटी, चावल, दूध और
देनी होगी दाल |
नोट गिन-गिन के थक जायेंगे हाथ,
इस काम में इतना बनेगा माल |
दूध की जगह पानी में,
पेस्टीसाईड मिला कर बच्चों को पिलायेंगे |
पेड़ों की तरह बच्चों को भी,
खाद देकर स्वस्थ बनायेंगे |
एक मिल में देख लिया है मैंने माल,
वहाँ पड़ी है हज़ारों बोरी,
सड़ी-गली दाल |
उसे कौड़ियों के दाम लायेंगे,
और मिड-डे मील में,
बच्चों को खिलायेंगे |
भुने-सड़े चावलों में,
छोटे-छोटे कंकड़ों को मिलाना है,
और उन्हें भी मिड-डे मील में,
बच्चों को खिलाना है |
तुम लेखक ए.टी.ज़ाकिर हो,
सब तुम्हें जानते हैं |
हिन्दू तो हिन्दू, मुसलमान भी,
तुम्हें मानते हैं |
तुमने हिन्दू होकर भी,
मुस्लिम उपनाम लगाया है |
हिन्दू-मुस्लिम एकता को,
अपने जीवन का लक्ष बनाया है |
तुम साथ दोगे तो,
हमारे प्लान गौरमेंट को जँच जायेंगे |
गौरमेंट तुम्हें अल्पसंख्यक समझेगी,
और थोड़े समय के लिये,
हम बच जायेंगे |
कुछ दिन चाहिये,
हम सारे सबूत मिटा देंगे |
अपने चारों ओर,
रिश्वत की गंगा बहा देंगे |
जाँच आयोग आयेगा,
हमे बुलायेगा
और थोड़े दिनों में चला जायेगा |
उनका लिखा कभी सामने नहीं आयेगा,
क्योंकि सब फाईलों में दब जायेगा |
तब तक गौरमेंट की,
और कोई स्कीम आयेगी |
और हमारी बंद,
ठगी की दुकान फिर खुल जायेगी |
विलुप्त प्रजाति
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: १७-०७-१३)
हमने सड़क पर पड़े,
घायल को उठाया,
अपनी कार में डाल के,
उसे अस्पताल पहुँचाया |
डाक्टरों ने कहा
घायल को खून दीजिये |
हमने कहा, हमारा ले लीजिये |
ये क़िस्मत का ही था खेल,
कि हमारा ब्लड ग्रुप,
खा गया उससे मेल |
हमारा खून उसे मिल गया,
उसका चेहरा थोड़ा खिल गया |
इसी बीच अस्पताल वालों ने
पुलिस को बुलाया,
और हमारा परिचय
पुलिस से कराया |
“घायल से तुम्हारा क्या रिश्ता है भाई,
जिसने तुमसे इतनी सारी मशक्कत कराई |”
हमने ‘न’ में सर हिलाया,
‘कोई रिश्ता नहीं है’- उन्हें बताया |
पुलिस वालों ने मुंडी हिलाई
और तुरंत हमें हथकड़ी पहनाई |
“क्यों बे ! तूने इसे
सड़क से उठाया है ?
अपनी कार में डाल के
तू इसे यहाँ लाया है ?
बिना बात में तूने अपना
इतना पेट्रोल खर्च किया !
और कार का इंटीरियर भी गंदा कर लिया ?
अब इसे अपना खून देकर
ड्रामा रचा रहा है ?
हम सब जानते हैं –
तू इसे नहीं अपने-आप को
बचा रहा है |
हमने समझ ली है तेरी कहानी
अब तुझे जेल की है हवा खानी |”
बस फिर बहुत दिनों हमें
जेल में सड़ाया गया,
बाद में एक दिन हत्यारोपी बनाके
अदालत में लाया गया |
दलीलों और बहस के बाद
जज साहब ने अपना चश्मा लगाया
और हमे देखते हुये अपना फ़ैसला सुनाया !
“आज के युग में,
कोई अनजाने पर दया करे
अपना इतना महंगा पेट्रोल जलाये
और बिना कारण किसी अनजान को
अपनी कार से अस्पताल ले जाये |
कोई पागल ही ऐसा कर सकता है
वरना फालतू का इतना खर्च कौन सह सकता है |
इसलिये अब मैं अपना न्याय सुनाता हूँ,
और इसे मानसिक अस्पताल भिजवाता हूँ |”
हमें मानसिक अस्पताल भिजवाया गया,
और वहाँ हमारी आत्मा को
स्कैन कराया गया |
स्कैनिंग की रिपोर्ट ने सबको चकराया
रिपोर्ट ने हमें विलक्षण प्राणी बतलाया |
हमारी आत्मा में दया, प्रेम और मानवता का वास था |
जिन गुणों पर सभी को अविश्वास था |
हमें विलुप्त हो गई
प्रजाति का प्राणी बताया गया,
और हम पे रिसर्च करने,
हमे लैब में लाया गया |
तबसे हम इस लैब में
छटपटा रहे हैं,
और रोज़ अपने ऊपर परीक्षण करा रहे हैं |
आत्मा की सर्विसिंग
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: १४-०७-१३)
रिश्वत लेने का हमने मन बनाया ही था
और नोट थामने को हाथ आगे बढ़ाया ही था,
कि दिल काँपने लगा
डर हमारी आँखों में झाँकने लगा |
हम समझ गये –
करप्ट हो गई है हमारी आत्मा के कम्प्यूटर की फायल,
जिसने कर दिया है हमारे आत्मविश्वास को घायल |
आत्मा की सर्विसिंग कराने,
अब हमे फिर से सर्विस सेन्टर जाना होगा,
वहाँ अपनी पुराने मॉडल की आत्मा को
फिर सर्विस कराना होगा |
सर्विस सेन्टर में हमने अपना हाल बताया,
जिसे सुनकर मैनेजर ने
हमारी आत्मा का एक्सरे कराया |
हमारी आत्मा के एक्सरे को देख कर
मैनेजर घबराया,
उसने एक लम्बा-चौड़ा रिपेयर एस्टीमेट हमे पकड़ाया |
फिर उसने अपना लैपटॉप खोला
और गंभीर स्वर में बोला –
आपकी आत्मा का कम्प्यूटर हो गया है फेल,
सारे पुरजों का निकल चुका है तेल |
ये तो हमारा ही दम है कि,
आपकी आउट-ऑफ-डेट आत्मा को,
हर बार चला देतें हैं,
और दूसरों की आत्मा के पार्ट्स निकालकर
आपकी आत्मा में लगा देतें हैं |
अब अपनी इस आत्मा को बदलवा दीजिये,
और उसकी जगह नये मॉडल की
इलेक्ट्रॉनिक आत्मा लगवा लीजिये |
हमने कहा –
कौन सी लगवायें ?
आप ही कोई सस्ती, अच्छी
टिकाऊ आत्मा बतायें |
चाईनीज़ आइटम लगवाइये,
उसने कहा
चारों ओर वही दिख रहा है,
सस्ता भी है,
इसलिये खूब बिक रहा है |
इसके कम्प्यूटर में एंटी-वायरस भी पड़ा है
जो आपकी आत्मा की रक्षा करने खड़ा है |
बहुत पावरफुल है –
दया, सहानुभूति, प्रेम, मानवता जैसे
सारे वायरसों को धो देगा |
और उनकी जगह –
झूठ, कमीनापन, मक्कारी और ऐहसान फ़रामोशी
आपकी आत्मा में बो देगा |
पछतावा ख़ुद आपसे पछतायेगा,
और आपकी आत्मा में बेशर्मी का
वृक्ष लहरायगा |
इतना ही नहीं –
आपकी इस कबाड़ आत्मा को,
हम एक्सचेंज में ले लेंगे,
और बदले में आपकी आत्मा में
कुछ चोरी, धोखेबाज़ी और ख़ुशामद भर देंगे |
आप ‘हाँ’ तो कहिये,
फिर मैं अपना कमाल दिखाता हूँ,
और आपमें
मॉडर्न आत्मा लगा के
आपको आजका सफलतम
इंसान बनाता हूँ |
ज्ञानामृत
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: १२-०९-१९८८)
आकर उलझ गई है,
बिजली के टेढ़े-मेढ़े पोल से,
काँपती हुई एक कटी पतंग !
ये मरियल सी सफेद पतंग
किसी फटीचर की लगती है |
इसे कभी जीतना नहीं है,
ये तो सूरत से ही
हारी हुई लगती है |
सामर्थ्यहीन की पतंग युगों से कटती आई है,
कटती थी-कटती है-कटती रहेगी |
कटने के बाद सड़क पर
बच्चों के हाथों फटती रहेगी |
हाय कैसी दुर्गति है,
पर यही इसकी नियति है |
लोग आज दोहरे तिहरे धागे से
पतंग उड़ाते हैं,
दूसरों की पतंग काटने के लिये
जान लड़ाते हैं |
आज पतंग उड़ाना खेल नहीं है,
ये आपकी औकात की पहचान है |
पतंग कट गई तो बड़ी थू-थू होती है,
आज सिर्फ पतंग काटने में शान है |
इसलिये—
पतंग उड़ानी है तो, युग की आवाज़ सुनो
लोग दोहरा तिहरा धागा बाँधते हैं
आप दोहरा तिहरा
स्टील का तार बुनो |
मतलब जीतने से ही है
क्योंकि सदैव से ही
विजेता सच्चा है,
बहादुर है
ईमानदार है-अच्छा है
और हारा हुआ ?
हारा हुआ सही हो ही नहीं सकता,
वरना वो हारता ही क्यों !
इतिहास भी तो यही कहता है
हम सदैव विजेता का साथ देते रहे हैं |
तभी तो –
अपने प्रति निरपराध बालि को,
छुपके, धोखे से
मारने वाला राम सही है,
और छल से मरने वाला बालि गलत !
इसलिये ए दोस्त –
बालि बनने से क्या लाभ ?
अपनी पतंग को बचा
उसे कहीं भी नचा,
कैसे भी उड़ा
पर कटने मत दे |
और गली के बच्चों द्वारा
फटने मत दे |
वरना मेरी तरह तू भी
दो कौड़ी का जाना जायेगा
और बिना अपराध के
अपराधी माने जायेगा |
प्रश्नोत्तर
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: २९-०६-१३)
देवदूत ने अपना लैपटॉप खोला,
फिर शाँत भाव से बोला,
तुम्हारे कर्मों का लेखा तैयार है |
अब स्वर्ग-नरक जहाँ भेजेंगे,
तुम्हें जाना होगा |
अपना कर्म फल वहीं
भुनाना होगा |
मैंने कहा –
मंज़ूर है !
बस एक इच्छा पूरी करवाईये,
कुछ पूछना है ?
जरा भगवान जी को बुलवाईये |
देवदूत ने मुस्कुरा के सिर हिलाया,
और उसी पल मैंने भगवान को सामने पाया |
मैंने कहा –
प्रभू !
मेरा एक ही सवाल है
जो बन गया मेरे जी का जंजाल है |
आपने केदारनाथ में ये क्या किया ?
होलसेल में लाखों का जीवन हर लिया |
माँ-बाप के साथ बच्चे भी
‘फ्री ऑफर’ में खप गये
और जानवरों के साथ
आदमी, औरत, बड़े-बूढ़े सब नप गये |
आपकी अक्ल पे क्या पड़ गया था पाला ?
जो भगवन, इतने सारे भक्तों को
एक साथ मार डाला |
भगवान बोले –
मैं क्यों मारता ? मैंने किसी को नहीं मारा
मनुष्य अपने कर्मों से है हारा |
पहाड़ों पर मैंने नहीं लगाया हाईडिल प्रोजैक्ट
नहीं काटे मैंने जंगल
बिना सोचे समझे उसका इम्पैक्ट |
वातावरण की गर्मी तो तुमने बढ़ाई है
हिमालय तो हिमालय, तुमने तो
ध्रुवों की भी बर्फ़ पिघलाई है |
अब प्रलय को तो आना ही है
और अपनी करनी का फल तुम्हें पाना ही है |
देखो सुनो –
मैंने तो नहीं कहा कि
लोगों को ठग के पैसा कमाओ
फिर मेरी पूजा का ढोंग करने
केदारनाथ जाओ |
मेरी पूजा करनी है
तो अच्छे इंसान बन के जियो
और बिना पूजा-पाठ के
मेरे आशीर्वाद का अमृत पियो |
विरासत
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: २०-०६-१३)
चारों ओर से चटका, काँच का गिलास,
ऐसा ही है हमारा आत्मविश्वास –
मूल्यों के एक्सपायर्ड सौल्यूशन से –
हम इसकी दरारों को जोड़ते जाते हैं |
फिर भी –
कभी सोर्स की कमी,
कभी रिश्वत की जरूरत,
रोज़ कोई न कोई
नयी दरार फोड़ते जाते हैं |
गिलास सदा खाली रह जाता है |
चाहे चाय हो, चाहे पानी,
चाहे चाय हो, चाहे पानी,
सब कुछ दरारों से बह जाता है |
अब नया गिलास कहाँ से लायें ?
अपने इन सड़े-गले मूल्यों को
कहाँ डुबायें !
क्योंकि –
ऐसी बदबूदार विरासत तो
कबाड़ी भी नहीं लेता |
और गिलास तो बहुत बड़ी चीज़ है,
इसके बदले में,
एक डेली नमक तक नहीं देता |
जद्दोजहद (नज़्म)
ए.टी.ज़ाकिर (रचनाकाल: ०२-०१-८७)
जिस्म थक जाये, टूट जाये, बिखर जाये तो क्या ?
वक़्त को हारना और आदमी को जीना है |
सब शिक़स्तों को, मज़ालिम को है पीना तुझको,
तुझको मरना नहीं, जीना है, फ़क़त जीना है |
हार के घूँट कई बार पिये हैं तूने,
जब से आया है तू, इस दुनिया में जीने के लिये |
क्या तवारीख़, क्या निज़ाम और क्या रस्मों – रिवाज़,
सब के हाथों में है इक तेग नुकीली, तेरे सीने के लिये |
जिस्म घायल, हाथ ख़ाली, कोई परवाह न कर,
गर्मिये रूह ख़ुद शमशीर में ढल जायेगी,
वक़्त, तारीख़ो - निज़ाम, रस्मों – रिवाज़ हारेंगे,
ज़ीस्त क्या चीज़ है, तक़दीर बदल जायेगी |
दिल को मत तोड़, थके पाँव अगर उठते नहीं,
राह दुश्वार है और तन्हा सफ़र है तेरा |
वो बहुत दूर, कहीं पर्वतों से भी ऊपर,
एक सपनीला – सुनहरा सा, वो घर है तेरा |
आगे बढ़ना है यूँ, हालात मुत्तासिर न करें,
इन अँधेरों को, ज़ख्मे – ठोकरों को पीना है |
राह सिमटेगी, मिलेगी तिरी मंज़िल तुझको,
मौत को हारना और ज़िंदगी को जीना है |
जिस्म थक जाये, टूट जाये, बिखर जाये तो क्या ?
वक़्त को हारना और आदमी को जीना है |
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