वर्ष 1960
मुरादाबाद की जाड़ों की वर्षा का एक दिन नवम्बर माह की कड़कड़ाती सर्दी में लिपटा और
बारिश से भीगा एक दुखद दिन !
मासिक
प्रकाशन कहानी पत्रिका के संपादक जी ने मिलने के लिये सुबह 8 बजे
का समय दिया था, एक 12 वर्ष के बालक को |
जाड़े
की बारिश, कड़ाके की ठण्ड और छाते के नीचे एक थैले में अपनी कहानी लिये इंतज़ार करता
बालक |
लगभग
11 बजे संपादक जी अपने ऑफिस से बाहर आये, बालक को देखा,
“अरे तुम अभी भी खड़े हो | देखो तुम अभी बहुत छोटे हो, मैं तुम्हारी
कोई कहानी नहीं छाप सकता |”
वो
बालक उस दिन ये नहीं समझ सका और न आज 53
वर्षों के बाद
ये समझ पाया है कि उम्र का लेखन से क्या रिश्ता होता है ?
बचपन
की उम्र के मीठे-मीठे सपनों की दुनिया में ज़िन्दगी ने यह पहला तल्ख़ अहसास मुझे
कराया |
यहीं
से शुरू हो गयी मेरी तल्खियों की यात्रा !
दूसरी
इससे भी कड़वी सच्चाई कुछ ही दिनों में सामने आ गयी, जब एक दयावान, करुणावतार,
हमदर्द ने मुझ 13 वर्षीय बालक का लिखा जासूसी उपन्यास “डैथरेज़”
(मृत्युकिरण) प्रकाशन के लिये पुष्पी जासूस कार्यालय, इलाहबाद को भेजने का न सिर्फ
प्रस्ताव रखा वरन उसे भेज भी दिया | मुझे लगा देवता धरती पर भी होते हैं |
जून
1961 में जब यह उपन्यास प्रकाशित होकर आया तो देवता ने मुझे बुलाया |
दयावान
ने सबसे पहले उपन्यास का पारीश्रमिक मुझे दिया, 10 रूपये का एक नया नोट और
साथ में प्रकाशित उपन्यास की एक प्रति भी मुझे दी | फिर मुँह फेर कर बोले, “देखो भाई तुम्हारे नॉवेल को
रजिस्ट्री से भेजने, फिर बार-बार पोस्टकार्ड से पत्र व्यवहार करने का खर्चा, 5 प्रतियाँ
जो नॉवेल की आयीं हैं उनके दाम काटने के बाद और नॉवेलों का पैकेट जो उन्होंने भेजा
उसका डाक खर्च यदि हम इन सब खर्चों को जोड़ें तो 43 रूपये होते हैं | कुल 50 रूपये
मिले थे उनमे से ये खर्चे काटकर तुम्हारे 7 रूपये बनते हैं | तुम
ये 10 रूपये रख लो, इनमें से 3 रुपयों को मेरी तरफ से
अपना ईनाम समझो |”
मैं
ठगा सा रह गया, मुझे लगा कि कितना शोषण है लेखन में | मैंने नॉवेल खोला पहले ही
पृष्ठ पर लेखक के नाम के स्थान पर मेरा नाम न होकर वरन मेरे इस दयावान देवता का
नाम था | मैं समझ गया कि मैं ठगा जा चूका हूँ |
मेरा
दयावान देवता जैसे मंदिर से लुढ़क कर नाली में जा गिरा |
ये
पहले से भी ज्यादा तल्ख़ घूँट था जो ज़िन्दगी ने मुझे पिलाया |
इसके
बाद धीरे-धीरे मेरा सफ़र चल निकला | मैं पहले से अधिक गंभीर हो गया, मैंने अपने
लेखन के प्रकाशन के लिये देवताओं का सहारा लेना छोड़ दिया और राक्षसों की इस
दुनियाँ में महज़ इंसान बन कर अपनी कोशिशें करने लगा | इतना ज़रूर हुआ कि मैंने
प्रकाशकों से अपनी कहानियों के मुँह मांगे दाम बेदर्दी से वसूलने शुरू कर दिये और
एक उसूल बनाया कि जिसे मेरी कहानी चाहिये उसे कहानी लेने ख़ुद मेरे घर आना होगा |
प्रारम्भ
में घंटों संपादकों को अपने घर के बाहर इंतज़ार कराया | बाद में अपने पर ही शर्म
आने लगी तो मैंने यथावत फिर अच्छे मनुष्य की तरह उनके साथ व्यवहार प्रारम्भ कर
दिया |