बिल्लू से ए.टी.ज़ाकिर
---यादों का एक सफ़र !
बिल्लू और नौकर शेर सिंह की गोद में मुन्नी |
मेरे
बचपन की कुछ धुंधली और कुछ साफ़ तस्वीरें मेरे ज़हन में आज भी मौजूद हैं | मुझे
अच्छी तरह याद है अपना रूप-स्वरुप ! पतला-दुबला लम्बा सा मेरा शरीर मगर कचौड़ी जैसे
फूले मेरे गोल-मटोल गाल, घुटनों से नीचे तक की ढीली-ढाली चौड़ी सी नेकर और मेरी पीठ
पर झूलती लड़कियों जैसी दो मोटी-मोटी गुथी हुई चोटियाँ |
मेरे
हाथ में आम तौर पर एक एयरगन रहती थी और नेकर की जेब में उसके छर्रे होते थे | नेकर
के उपर के वस्त्र के रूप में मुझे कमीज़ पहननी पसंद नहीं थी इसलिये मैं सफ़ेद बनियान
पहने घूमता रहता था | इतना ही नहीं जूते-चप्पल पहनने से भी मझे खासा परहेज़ था
इसलिये नगें पैर घूमना एक बहुत ही आम आदत बन गयी थी |
--यही
था “बिल्लू” का यानी मेरा स्वरुप !
हमारे
परिवार में लड़कों का मुंडन (बाल कटने की रस्म) 3 वर्ष की आयु पूरी होने
से पहले या 7 वर्ष की आयु पूरी होने के बाद की प्रथा थी | इसीलिए
मैं खासा बड़ा हो चुका था और लड़कियों की तरह चोटियाँ लटकाये घूमता था | मेरे पास
टीन की बनी एक लाल रंग की बड़ी सी जीप गाड़ी थी जिसे चलाकर मैं अपने घर में इधर-उधर
घूमता रहता था |
मेरे
पिता श्री प्रयाग नारायण टंडन, मुरादाबाद के एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में प्रोफेसर
थे | मेरी एक छोटी बहन थी – मुन्नी !
उसके
साथ मेरी खूब पटती थी (आज भी पटती है ) |
पढ़ने-लिखने
से मैं कोसों दूर था | स्कूल जाने के नाम पर मुझे
बुखार आने लगता था | मुरादाबाद के छोटे-बड़े लड़कों के और लड़कियों के कम से
कम 7-8 स्कूल ऐसे थे जो मुझे दाख़िला देने के बाद भी अपने पास
नहीं सहेज सके थे | मुझे स्कूलों और पढाई से नापसंदगी थी – इसीलिए स्कूल भी मुझसे
दूर से ही कतराने लगे |
जब
किसी नये स्कूल में मेरा एडमिशन होता उस दिन तो घर में त्यौहार का सा माहौल हो
जाता था | ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ चारों ओर झूमने लगतीं थीं | मगर अगले 2-3 दिनों
में ही ये सारी ख़ुशियाँ अर्श से फ़र्श पर आ जातीं थीं, जब मैं स्कूल न जाने की अपनी
भीष्म प्रतिज्ञा का पालन करने लगता था और घर के सदस्य मुँह बाय हुए ताकते रह जाते
थे | कभी कभी मेरी पिटाई भी की जाती थी किन्तु मै हिमालय के समान अडिग और अटल बना
रहता था |
बिल्लू और अम्मा(मेरी माँ) |
कई
बार मेरी इस कारस्तानी पर अम्मा (मेरी माँ) मुझे घर से बाहर निकाल कर दरवाज़ा अन्दर
से बंद कर लेतीं थीं | मगर ऐसे में मुन्नी का प्यार उछाले मारने लगता था | वो
दरवाज़े के पीछे आकर दरारों में से बाहर झांक कर मेरे अकेलेपन को दूर करती थी और
मौका मिलते ही दरवाज़ा खोल कर मुझे घर में घुसा लेती थी | इस अपराध के लिये उसे न जाने कितनी बार डांट खानी पड़ती थी |
--ऐसे
ही बीत रहा था मेरा बचपन !
उन्हीं
दिनों मेरे दादा जी (श्री बिशेश्वर प्रसाद टंडन जी) कानपुर से कुछ दिनों के लिये
हमारे घर आये | उनके सामने फिर नये 2-3 स्कूलों में किस्मत
आज़माई गयी मगर मैंने किसी को जीतने नहीं दिया | दादा जी ने मेरा यह कार्यक्रम बड़े
ध्यान से देखा | आनन–फ़ानन में फ़ैसला हुआ और मेरा बोरिया-बिस्तर बंधवा कर दादा
जी के साथ स्कूल में पढ़ने के लिये कानपुर
भेज दिया गया |
10-15 दिनों में ही दादा जी के सारे सपने टूट कर बिखर गये
जब अपने पिछले अनुभवों के सारे पैतरें आज़माते हुए मैंने कानपुर के स्कूलों और अपने
परिवार के सदस्यों पर आसान विजय प्राप्त कर ली |
जल्दी
ही दादा जी ने भी हथियार डाल दिये | उन्होंने भी यह मान लिया कि मैं अनपढ़-गंवार
ही रह जाऊँगा | तभी वो घटना घटी जिसने सबकुछ
बदल दिया और शैतान, अनपढ़ और गंवार “बिल्लू” के सामने ज़िन्दगी की एक नयी राह खुल
गयी |
हुआ
कुछ यूँ कि दादा जी रोज़ रात को एक कहानी बच्चों की पत्रिकाओं (बालक, चुन्नू-मुन्नू,
चंदामामा आदि) से पढ़ कर मुझे सुनाते थे और मैं कहानी सुन के सपने बुनता हुआ सो
जाता था | मुझे कहानियाँ बहुत अच्छी लगतीं थीं | मन थोड़ा लालची भी था सो एक कहानी
सुनकर सो जाने वाला कार्यक्रम अधिक दिनों तक ठीक से नहीं चल सका | मुझमे और दादा
जी में खींचतान होने लगी |
मैं
चाहता था कि रोज़ दादा जी मुझे कई कहानियाँ पढ़ कर सुनायें मगर दादा जी पूरी कंजूसी
के साथ एक कहानी सुनाने की “राशन” वाली शर्त पर अड़े रहे |
--और
उस दिन टकराव हो ही गया !
मैंने
ज्यादा कहानियों की ज़िद की, दादा जी ने साफ़ इंकार किया | खूब बहस हुई | दादा जी
अपने बात पर अड़े रहे | मैं बच्चा था सो रोने लगा पर उनपर कोई असर नहीं हुआ | थोड़ी
देर बाद उन्होंने अंतिम फ़ैसला सुना दिया, “अगर कहानियों का इतना ही शौक है तो
उन्हें ख़ुद पढ़ना क्यों नहीं सीखते ? पड़ना सीखो फिर जितनी कहानियाँ चाहो पढ़ते रहना
|”
मेरे
आँसू थम गए | मैंने फ़ैसला किया कि ठीक है अब मै ख़ुद कहानियाँ पढ़ना सीखूंगा |
--और
फिर शुरू हो गयी कहानी की किताबों से एक-एक अक्षर मिलाकर कहानी पढ़ने की मेरी
शुरुआत, जिसमे दादा जी पूरी तरह मेरे साथ थे और वो मुझे कहानियाँ पड़ना सिखाने लगे
| मेरी सहायता के लिये हिंदी वर्णमाला की एक पुस्तक भी कहानियों की किताब के साथ
रख दी गयी और मुझे उसकी मदद भी मिलने लगी |
मुझे
जैसे जीवन मिल गया | फिर अपनी इच्छा से ही मैं स्कूल जाने लगा और मेरी शिक्षा
यात्रा प्रारम्भ हुई जो M.A करने के बाद ही थमी |
एक
दिन मैंने अपनी पहली कहानी सोची और लिखने बैठ गया | शायद मैं 8-9
वर्ष का रहा हूँगा | मैंने कहानी लिखी और जा कर अपने एक मात्र पाठक दादा जी को
सुनाई | बिल्कुल बे सिर-पैर की कहानी थी | कहीं तीर कमान चल रहे थे तो कहीं एटम बम
मौजूद था | और वो भी ऐसा एटम बम जिसे मेरी कहानी का खलनायक जेब में रख कर घूमता था
| दादा जी ने मेरी हंसी नहीं उड़ाई | उन्होंने मुझे समझाया और प्रोत्साहित किया |
--बस
ऐसे ही मै कहानियाँ लिखने लगा और लेखन की राह पर आगे चल पड़ा |
1973 की बात है | मैंने अपनी किसी नयी कहानी का प्लाट अपने
पिता श्री प्रयाग नारायण टंडन साहब (जिन्हें हम प्यार से अप्पा जी कहते थे) को
सुनाया |
प्लाट
तो उन्हें पसंद आया मगर उन्होंने साफगोई से कहा, “तुम अब एक सा घिसा-पिटा लेखन कर
रहे हो | तुम्हारे प्लाट और कहानियाँ भले ही नयी हैं मगर इनका फ्लेवर पुराना लगता
है | स्टीरियो टाइप मत बनो !”
मैं
अप्पा जी की इस बिंदास टिप्पणी से जैसे एकदम ज़मीन पर आ गया | “क्या लिखूं ?” मैंने
पूछा |
“नया
लिखो ! खेलों पर लिखो | कविताएँ लिखो | पर लकीर मत पीटो ! कुछ वर्षों का गैप करलो
|”
--और
मैं लेखक से कवि बन गया !
अपने
कला-पारखी माता-पिता को मैं नमन करता हूँ | उन्होंने न केवल मुखे जन्म दिया वरन
जीने की सलाहियत भी दी | मेरी कहानियों के प्लाट की पहली तराश वही मेरे साथ करते
थे | हम कितने ही दिनों तक, घंटों बैठे इन प्लाट पर बाकायेदा बहस करते थे |
जब
मैं कहानी लिखने बैठता था और लगातार घंटों उसे लिखता रहता था तो मेरी माँ बीच-बीच
में मुझे मेरे पसंद की मीठी चीजें लाकर खाने को देतीं थीं | जाड़ों में अधिकतर
रेवड़ी, गज़क या गाजर का हलवा होता था जिसे वो ख़ुद बनातीं थीं | गर्मियों में इन
चीज़ों का स्थान रूह-अफ़ज़ा का गाढ़ा-गाढ़ा खूब मीठा शरबत बना के मुझे पिलातीं थीं |
कहानी
पूरी होने पर सबसे पहले मैं उसे पढ़ कर अप्पा जी को सुनाता था | वो ख़ुश होकर कहते
थे, “शाबाश ! अच्छी कहानी लिखी है | अब मैं तुझे अच्छा सा मीट बना कर खिलाता हूँ
|”
अप्पा
जी मीट बहुत अच्छा बनाते थे | आज भी मीट का वो स्वाद मेरे मन में ताज़ा है और जब
कभी कहीं भी मैं मीट खाता हूँ तो वो स्वाद मेरे सामने आकर खड़ा हो जाता है |
आज
उनके शरीर मेरे साथ नहीं हैं, मगर उनकी ममतामई आत्माएँ आज भी अपने “बिल्लू” के साथ
हैं जिसे सारी दुनिया ए.टी.ज़ाकिर कहती है |