अब तक का सफ़र





1961 के इन कटु अनुभवों ने मुझे झकझोर के रख दिया | मैंने तय किया कि अब पहले खूब सारा लिख कर जमा किया जाये और उचित समय आने पर पत्र-पत्रिकाओं पर टूट पड़ा जाये | सो मैं लिखने में जुट गया |

1966 तक के अरसे में मैंने “पीपल गढ़ का प्रेत”, “कयामत के पुतले” और “हवेली के भूत” नाम के तीन लम्बे-लम्बे जासूसी नॉवेल लिख मारे और साथ में लिख दीं 20-25 कहानियाँ जो अधिकतर अपराध और रहस्य की थीं | इन्हीं दिनों मैंने कुछ हास्य व्यंग की रचनाएँ भी लिखीं |

1966 में मैं प्रकाशन की दुनियाँ में आ गया | हर महीने कई कहानियाँ छपने लगीं और आने लगीं ढेर सारी फैनमैल !

यही वो समय था जब मैंने विदेशी भाषा की कहानियों को अनुदित करके लगातार छपवाना शुरू कर दिया | नाम भी आने लगा और दाम भी आने लगे |

1971 में समय काटने के लिये कविता लेखन शुरू किया और 40 छोटी-छोटी मिनी कविताएँ लिखीं |

1973 आते-आते खेल लेखन में रूचि जागी तो देश की विभिन्न खेल पत्रिकाओं ; “खेल खिलाड़ी”, “क्रिकेट जगत”, “खेल युग” और “खेल समाचार” में जम कर लिखा | इसी वर्ष “खेल संसार” नामक हिंदी खेल पाक्षिक निकाला जो बाद में आर्थिक कारणों से बंद करना पड़ा |

1975 में लगा कि मेरा कहानी लेखन स्टीरियो टाइप्ड होता जा रहा है | अत: कहानी लेखन से हाथ खींच लिये |

दो वर्ष शांत बैठने के बाद 1977 में अंग्रेज़ी की देश की सबसे बड़ी तीन खेल पत्रिकाओं “The Sportsweek”, “The Sportstar” और “The Sportsworld” के लिये विशेष संवाददाता बनकर खेलों को कवर करना शुरू किया |

1975 से 1977 के दो वर्षों में की गयी फोटोग्राफी भी काम में आने लगी जब अपने कवरेज के फोटो भी स्वयं लेने शुरू कर दिये |

इन सारे वर्षों में मैं थोड़ी बहुत कविताएँ लिखता रहा |

अब फिर कहानियाँ लिखने का मन हो रहा है |
देखतें हैं, कब लिखी जायेगी !

फ़िलहाल तो टी.वी सीरियल की स्क्रिप्ट पर काम कर रहा हूँ | साथ में कभी-कभी एक हिंदी फिल्म की स्क्रिप्ट भी थोड़ी-थोड़ी आगे ढकेलता जा रहा हूँ |